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कमाल की लीडिया, जिन्होंने महिलाओं के लिए कई दरवाजे खोले

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  12-Feb-2024 | संजय श्रीवास्तव



कुछ दिनों पहले नेटफिलिक्स पर एक बॉयोपिक वेबसीरीज रिलीज हुई - द ला एकोर्डिंग टू लीडिया पोएट (The Law According to Lidia Poët)। ये इटली की पहली महिला वकील की असल कहानी है, जो परिवार और पिता से विद्रोह करके वकालत की पढ़ाई तो कर लेती है, वकील भी बन जाती है लेकिन वो बार कौंसिल एक महिला वकील को स्वीकार नहीं कर पाता। तर्क दिया जाता है कि भला कैसे एक महिला वकालत जैसे पेशे के लिए अनुकूल हो सकती है। लिहाजा उसका वकालत करने का लाइसेंस रद्द कर दिया जाता है। असली कहानी तो इसके बाद शुरू होती है।

ये कहानी दरअसल उन महिलाओं की कहानी है, जिन्होंने तब संघर्ष किया, जब उनकी आवाज वास्तव में नहीं सुनी जाती थी। उन्हें हर अधिकार को पाने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। ये वो महिलाएं थीं, जो निडर थीं, एक उद्देश्य के लिए लड़ीं। गैर समानता के खिलाफ महिलाओं की आवाज बनकर उभरीं।

केवल वकालत ही क्यों, बहुत से पेशों में तो अब भी मान लिया जाता है इस काम को महिला क्या कर पाएगी! लेकिन जब महिलाएं उसे करती हैं तो इतनी बखूबी करती हैं कि बड़ी रेखा खींचने में पीछे नहीं रहतीं। चाहे वकालत हो या इंजीनियरिंग या सेना से लेकर दुनिया का कोई भी काम। यह सच है कि दुनियाभर में हर जगह और हर पेशे में महिलाओं को जगह बनाने के लिए बहुत जद्दोजेहद करनी पड़ी। लंबा आंदोलन चलाया। धीरे धीरे हालत सुधरी। हालांकि अभी इसमें बहुत कुछ बाकी है।

पहले लीडिया पोएट की कहानी जान लेते हैं। लिडिया पोएट का जन्म 26 अगस्त 1855 में इटली में हुआ। तब वहां भी महिलाएं आमतौर पर घर तक ही सीमित रखी जाती थीं। वह इटली की पहली आधुनिक महिला इतालवी वकील थीं। जब इटली की पुरुषों से भरी बार कौंसिल ने बर्खास्त कर दिया तो इटली में महिलाओं को कानून का अभ्यास करने और सार्वजनिक पद संभालने की अनुमति देने के लिए एक आंदोलन शुरू हुआ।

लीडिया ने ट्यूरिन विश्वविद्यालय के विधि संकाय में कानून की परीक्षा उत्तीर्ण की। 17 जून, 1881 को वकालत की डिग्री हासिल की। हालांकि जब वह यूनिवर्सिटी में कानून की पढ़ाई कर रही थीं तो उन्हें हतोत्साहित करने वालों में टीचर से लेकर सहपाठी तक सभी थे। जो ये कहने से कभी बाज नहीं आते थे कि वह गलत जगह समय बर्बाद कर रही है। ये करना उसके वश का है नहीं। जबकि हकीकत ये है कि चाहे कानून की पढ़ाई की बात रही हो या कानून के तर्कों को दूसरों को निरुत्तर करने की, हर जगह वह साथी पुरुष छात्रों से कहीं आगे थीं। जब उन्होंने वकालत की डिग्री हासिल की, तब भी उन्हें सलाह दी गई कि वह न्यायालयों में जाकर शायद ही वकील के तौर पर काम कर पाएं, क्योंकि वह तो विशुद्ध तौर पर पुरुषों का पेशा है।

लीडिया विलपॉवर की धनी थीं। टस से मस नहीं होने वालीं। खुद पर जबरदस्त विश्वास रखने वाली। इसी वजह से वो ये पढ़ाई कर पाईं। अगले दो वर्षों के लिए उन्होंने एक वकील के कार्यालय में "फोरेंसिक प्रैक्टिस में भाग लिया और अदालतों में सुनवाई के दौरान मदद की। फिर बार कौंसिल में शामिल होने के लिए जरूरी परीक्षा दी। उसमें वह सबसे ज्यादा नंबरों से पास होकर वकीलों की सूची में शामिल हुईं। मतलब अब वह इटली में वकालत कर सकती थीं।

जैसे ही लीडिया अपने पहले केस के लिए अदालत में पहुंची, वहां उन्हें देखते ही पुरुष वकील हक्के-बक्के रह गए कि एक महिला कैसे वकील बनकर उनके बीच प्रैक्टिस कर सकती है। खुद अटॉर्नी जनरल (प्रोक्यूरेटोरे जनरल) का कार्यालय भी इससे नाखुश था। उसने ट्यूरिन की अपील अदालत में शिकायत दर्ज कराई की कानूनी तौर पर महिलाओं का वकील बनना अवैध है। लीडिया का लाइसेंस रद्द हो गया।

इससे पूरे देश में सार्वजनिक बहस शुरू हुई, जिसमें 25 इतालवी समाचार पत्रों ने महिलाओं की सार्वजनिक भूमिकाओं का समर्थन किया। अब पोएट ने अपनी वकील भाई के सहायक के तौर पर काम करना शुरू किया। वह अदालत तो नहीं जा सकती थीं लेकिन भाई के हर केस को इतनी मजबूती से तैयार कराती थीं कि उनका भाई हर केस जीतने लगा, और ये बात फैलने लगी कि किस तरह लीडिया की जबरदस्त कानूनी जानकारी और योग्यता उसके भाई के काम आ रही है। बेशक उसका भाई अदालत में जिरह में हिस्सा जरूर लेता था लेकिन उससे पहले के सारे मामलों को तैयार करने और जांच का काम वह खुद करती थीं। कई बार तो लीडिया ने मर्डर के आरोपी माने जा रहे निर्दोषों को अपनी जांच से बचा लिया। इसने पूरे इटली को जहां उनका दीवाना बना दिया, वहीं उन पर लगा बैन हटने का नाम नहीं ले रहा था।

लीडिया एकबारगी इससे निराश जरूर हुईं लेकिन इसके बाद पूरे जोश से अंतरराष्ट्रीय महिला आंदोलन में सक्रिय हो गईं। आखिरकार वो दिन आया, जब इटली का कानून बदला और 17 जुलाई 1919 को लीडिया दोबारा बार कौंसिल की सदस्य बनकर कोर्ट में एक वकील के रूप में पहुंची। हालांकि तब तक वह 65 साल की हो चुकी थीं। लेकिन अब तक वह पूरी दुनिया में ना केवल प्रतीक बन चुकी थीं बल्कि उन महिलाओं में शुमार हो गईं, जिन्होंने महिलाओं के लिए एक ऐसा लौह दरवाजा खोला, जहां उनके प्रवेश का लगातार विरोध होता रहा था।

तो ये थीं लीडिया पोएट, जो बहुत प्रतिभाशाली थीं। जब पुरुषों की दुनिया ने उनके लिए दरवाजे बंद किए तो उन्होंने 19वीं सदी में पुरुष-प्रधान व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई लड़ी और क्या खूब लड़ीं। पुरुषों को अपनी काबिलियत और जज्बे से झुका ही दिया। खासकर ये बात इसलिए और अहम इसलिए भी हो जाती है कि लीडिया ने जिस तरह इटली में महिला आंदोलन में भूमिका निभाई, उससे महिलाओं के प्रति लैंगिक भेदभाव तो कम हुआ ही साथ ही और भी दरवाजे खुले।

हम आज जिस दुनिया में रहते हैं, वहां महिलाओं के लिए तमाम दरवाजे खुल चुके हैं, बहुत से खुलते जा रहे हैं, वो अपनी प्रतिभाओं से लोगों को कायल कर रही हैं लेकिन आप जरा सोचिए जब 19वीं सदी पुरुष अंधराष्ट्रवाद में डूबी हुई थी, तब ये वास्तव में कितना कठिन रहा होगा। सबसे बड़ी बात ये भी थी कि बहुत कम लोगों को इन जीवट वाली महिलाओं के बारे में मालूम होगा। ऐसे में नेटफिलिक्स की इस तरह की सीरीज बहुत प्रशंसनीय है।

वैसे अगर हम एशिया की बात करें तो यहां की ज्यादातर महिला वकील 1950 के दशक के बनीं। इस महाद्वीप की पहली वकील एक भारतीय ही थीं, जो पारसी परिवार में पैदा हुईं। हालांकि उनके पिता फिर धर्म बदलकर ईसाई हो गए थे। बांबे यूनिवर्सिटी की पहली ग्रेजुएट कॉर्नेलिया सोराबजी एशिया की पहली महिला वकील थीं। उन्होंने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से बैरिस्टर की पढ़ाई भी की। हालांकि उन्हें भी प्रैक्टिस शुरू करने के लिए ढाई दशक तक संघर्ष किया। वह मुकदमे लड़ने के लिए ब्रिटेन तक जाती थीं। अब तो खैर देश के सभी शहरों में महिला वकील मिल जाएंगी लेकिन 80 के दशक तक भी ये बहुत दुर्लभ था, जब कोई किसी महिला वकील को अदालत में देखता था तो चकित रह जाता था। कई बार उनके महिला होने के कारण उनकी योग्यता पर भी सवाल उठता था लेकिन बरस दर बरस महिलाओं ने अपनी योग्यता साबित कर दी है।

वैसे आप यह जानकर हैरान होंगे कि भारत में भी 1923 तक ये कानून था कि महिलाएं वकील बनकर मुकदमा नहीं लड़ सकतीं। ये कानून केवल कार्नेलिया के कारण ही बदला गया। क्योंकि उन्होंने भी 1897 में बांबे यूनिवर्सिटी से एलएलबी की परीक्षा पास कर ली थी। लेकिन उन्हें भी अदालत में जाकर वकील के तौर पर प्रैक्टिस करने की अनुमति करीब 25 साल बाद ही मिल पाई। क्योंकि कॉर्नलिया ने भी इसके लिए बहुत संघर्ष किया था। कार्नेलिया केवल वकील ही नहीं थीं बल्कि समाज सुधारक और लेखक भी थीं। उन्होंने कई किताबें भी लिखीं। सबसे बड़ी बात ये है कि कार्नलिया ने तब एक नहीं बल्कि कई महिलाओं से संबंधित आंदोलनों में हिस्सा भी लिया था। उनकी कहानी भी लीडिया जैसी ही है, जिसने भारत में महिलाओं के लिए कई दरवाजे खोलने का काम किया था।

वैसे भारत में महिलाओं के स्कूल-कॉलेज में पढ़ने और नौकरी करने का काम 50 के दशक तक तो बहुत कम था। लेकिन भारत की पहली महिला आईएएस इसी दशक में बन चुकी थी। कुछ चुनिंदा महिलाओं ने अपनी शिक्षा और सफलता से वो काम किया कि 50 के दशक के बाद तस्वीर बदलनी शुरू हुई। ये तो 60 का दशक था जब लड़कियों की स्कूल और कॉलेज जाने की संख्या बढ़ने लगी। 80-90 के दशक तक महिलाएं नौकरी में आने लगीं। हालांकि वो कुछ क्षेत्रों में ही नौकरी में आ रही थीं लेकिन 90 के दशक के बाद भारतीय महिलाओं ने लगभग हर उस क्षेत्र में पढ़ाई और नौकरी करनी शुरू की, जो उनके लिए काफी हद तक वर्जित माने जाते थे।



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